चोटी की पकड़–47
"जमादार, मुसलमान हूँ, लेकिन पैर पकड़ता हूँ। मैं ऐसा आदमी नहीं था। मुझसे छल किया गया।"
"किसने किया?"
रुस्तम की ज़बान बंद हो गई। होंठों पर उँगली रखकर इशारे से समझाया कि बोल नहीं फूट रहा।
जमादार ने कहा, "अच्छा, लो राजा को और बोलो।"
रुस्तम पर जैसे कूड़ा पड़ा। एक चीख निकली।
जमादार ने कहा, "अच्छा, तुम खजाने के पहरे में रहो, खजाने का पहरा हम मालखाने भेज देंगे।"
"जमादार, खाना-खराब न करो। हमारी तरक्की होनेवाली है।"
"कैसी?"
"हमको जमादारी मिलेगी।"
"अरे बेवकूफ, तेरी नौकरी जाएगी।"
रुस्तम घबराया। जमादार ने कहा, "जब तुम्हारी तरक्की होगी, सिफ़ारिश हम करेंगे, तरक्की राजा देंगे।"
'रानीजी देनेवाली हैं, उनका एक काम करना है।"
"रानीजी किसी राज-काज में दस्तन्दाजी कर सकती हैं? राज्य की मुहर पर उनका नाम भी है?"
रुस्तम को मालूम हुआ, वह नौकरी भी गई। कहा, "जमादार, गरीब आदमी हूँ, पेट से न मारिएगा।"
"कुल बातें बता दो। किसने तुमसे कहा?"
मुन्ना के स्मरणमात्र से रुस्तम के सिर पर माया-जाल छा गया। फिर न बोल सका, जैसे उसकी सत्ता ही गायब हो गई।
जमादार ने पूछा, "कुछ इशारा?"।
"व...रोज...।"
"अच्छा, तुम अपने पहरे पर जाओ, तुमको कुछ नहीं होगा अगर तुम सिपाही रहोगे।"
थोड़ी देर बाद मुन्ना आई। जटाशंकर का जी मरोड़ खाकर रह गया। मुन्ना को उसी किनारे देखकर उठे, गए और हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
"जमादार, कभी मत भूलिए कि मुन्ना छिनी है, यहाँ रानी हैं। बातें जाती हैं। हम भी भला-बुरा करते-कराते हैं। राजा रहेंगे तो रानी भी रहेंगी, नहीं तो रंडी रहेगी। जो रानी का सम्मान रंडी को दिलाता है, वह राजा नहीं, भंड़वा है। तुम्हारी स्त्री रानी में हैं, रंडी में नहीं। वहाँ जाओगे, तो रंडी को राज दोगे। राजा अब राजा नहीं क्योंकि उसकी रानी कहाँ हैं?"
जमादार को अक्षर-अक्षर सत्य जान पड़ा। पर घबराए कि राजा की तौहीन हुई। सोचा, रुस्तम इससे कह आया। कहा, "क्या वह चला गया?"
"वह कौन?" मुन्ना ने डाँटकर पूछा।